सम्राट अशोक और जैन धर्म
सम्राट अशोक ने उसकी बौद्ध रानी तिष्यरक्षिता के कारण जैन धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म अपना लिया था। लेकिन तिष्यरक्षिता ने ही अशोक के पुत्र कुणाल को कपट से अंधा बनवा दिया था, वास्तव में जब अशोक ने अपने प्रिय पुत्र कुणाल को उज्जैन अध्ययन के लिए भेजा तो उसने आदेश लिखा- “अधियतु कुमार(राजकुमार को पढाओ” , लेकिन रानी तिष्यरक्षिता ने मात्र एक बिंदु जोड़ दिया जिससे अर्थ हो गया- “अंधियतु कुमार (राजकुमार को अंधा करो)”। जिसके कारण कुणाल पिता के आदेश का पालन करते हुए स्वयं अंधे हो गये। जिसके कारण राज्य दूसरे पुत्र दशरथ ( दूसरा नाम पूण्यरथ)को मिला।
तिष्यरक्षिता की यह हकीकत जानने पर अशोक ने फिर से अपनें जीवन के अंतिम चार वर्षों में, बौद्ध धर्म को त्यागकर जैन धर्म अपना लिया था।सम्राट अशोक जीवन के अंतिम चार वर्षों में बौद्ध धर्म छोड़कर जैन धर्मी बन गए थे इसका प्रमाण कवि बिल्हण की रचना राजतरंगिणी में भी मिलता है।अशोक ने सभी बौद्ध भिक्षुओं को आधा नींबू भेजकर यह कहा था कि तुम्हारे पास आधा ही ज्ञान है, पूर्णज्ञान तो जैन धर्म में है।
फिर अशोक ने अपने पुत्र कुणाल के पुत्र संप्रति(संपदी) को उज्जैन का राजा घोषित कर आधे भारत का राज्य दे दिया था।शेष आधे पर दूसरे पुत्र दशरथ का राज्य था। संप्रति ने पूरे भारत में सवा लाख जैन मंदिर और सवा करोड़ जैन प्रतिमाएं बनवाई थी। संप्रति भारत पार कर चीन में भी जैन धर्म का प्रचार ना कर दे इसलिए वहा के बौद्ध राजा ने चीन की दीवार(ग्रेट वॉल अॉफ चाइना )बनवाई थी।
कलिंग के युद्ध में लाखों मरे हुए सैनिकों को देखकर अशोक बौद्ध धर्म अपनाकर अहिंसक हो गया था, ये सभी मिथ्या बातें है।
वास्तव में कलिंग के युद्ध से दो साल पहले ही अशोक बौद्ध धर्म अपना चुके थे और बौद्ध भिक्षुओं की शिकायत पर अशोक ने १२००० जैन साधुओं का कत्ल भी करवाया था। बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान में इसका जिक्र है।लेकिन इतिहास में ये सभी बातें छुपाई गई। जैन साधुओं के कत्ल के इस आदेश में भी शायद बौद्ध रानी तिष्यरक्षिता का ही कोई षड्यंत्र हो सकता है।
सारनाथ में मिले अशोक स्तंभ को भी बौद्ध प्रतिक का नाम दे दिया गया लेकिन वास्तव में सारनाथ जैन धर्म में एक महत्वपूर्ण तीर्थ है। जैन धर्म में सारनाथ 11 वे तीर्थंकर श्रेयांसनाथ की जन्मभूमि है।सारनाथ का वास्तविक नाम सिंहपुरी है लेकिन “श्रेयांसनाथ” नाम का अपभ्रंश ही सारनाथ हुआ। गौतम बुद्ध ने यहां अपना पहला उपदेश दिया हो ऐसा कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है।अशोक के शासन में बौद्ध सभा भी पाटलिपुत्र में हुई थी जिसमें अभिधम्म पिटक की रचना हुई थी। सारनाथ में ऐसी कोई सभा आयोजित नहीं हुई थी।
सारनाथ स्तंभ के अशौकचक्र(जो तिरंगे में भी है) पर २४ तील्लिया 24 तीर्थंकरों को ही समर्पित है, यह 24 घंटे को मानना एकदम गलत है क्योंकि उस वक्त समय की गणना घंटों के हिसाब से नहीं लेकिन प्रहर और मुर्हुत के हिसाब से की जाती थी।
यदि यह चक्र बौद्ध धर्म से संबंधित होता तो इसमें 24 नही, मात्र 8 तिल्लिया ही होती।
देश का आजादी के बाद तिरंगे में अशोक चक्र निर्धारित किया गया,जो वास्तव में सम्राट अशोक के दादा चन्द्रगुप्त मौर्य जो जैन राजा थे,उनके द्वारा निर्मित है।अपनी विजय पर जब चन्द्रगुप्त मौर्य समग्र राष्ट्र में अहिंसा से शासन करना चाहते थे ,तब उन्होनें यह “अहिंसा चक्र”निर्मित करवाया था।
यह स्तम्भ आज भी सारनाथ में विशाल जैन मंदिर की दीवार से सटे पुरातत्व विभाग के भण्डार में स्थित हैं।हाल ही कुछ वर्षों पहले ही अनेक पुरातत्वेताओं,इतिहासकारों व शोधकर्ताओं ने व्यापक शोध व खोज से इस रहस्य से पर्दा उठाकर यह सिद्ध कर दिया हैं कि इसका प्रचलन व
निर्माण चंद्रगुप्त मौर्य की ही देन है।
इस अहिंसा चक्र में 24 तिल्लियां 24 जैन तीर्थंकर का प्रतिक है।
भारतीय सिक्कों पर चार सिंह वाले राष्ट्रीय चिह्न(líon capital) में चारों दिशाओं में सिंह का अर्थ है कि तीर्थंकर महावीरस्वामी के धर्मसिद्धांत चारों दिशाओं में फैले।सिंह तीर्थंकर महावीर स्वामी का चिन्ह है।
इसी चिन्ह में नीचे घोड़ा तीसरे जैन तीर्थंकर संभवनाथ का चिन्ह है।
बैल प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव का चिन्ह है