जैन धर्म का मर्म

धर्म का मर्म
तारीख -३० जून २०२३
टेस्ट ३२ – जैन धर्म की हिन्दू धर्म से भिन्नता

जैन धर्म की हिन्दू धर्म से भिन्नता का अभ्यास इसीलिए आवश्यक है क्योंकि हमे जैन धर्म की विशेषता का अभ्यास हो और हम जैन धर्म मे दृढ़ हो जाये

अन्य सभी धर्मो से जैन धर्म भिन्न ही ये तो हमे समझता है परंतु हिंदू धर्म जैन जैसा लगता है इसीलिए उसके भिन्नता का ज्ञान आवश्यक है

(इस क्लास का उद्देश्य किसी धर्म को नीचे दिखाने का नही, अपितु जैन धर्म को सिखाने का है, कृपया इसे नकारात्मकता से ना देखे)

जैनधर्म शाश्वत है। (हरिवंशपुराण 1/27-28)
वैदिक धर्म का उद्गम वेद है (वेद से जन्म हुआ है)

जैनधर्म प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में भरतक्षेत्र में 24 तीर्थंकरों के अस्तित्व को मानता है । (हरिवंशपुराण 1/4-25 पद्मचरित 5/191-195)
हिन्दू तीर्थंकरों में विश्वास नहीं करते। वे या तो विष्णु के अवतारों में विश्वास करते हैं या भिन्न-भिन्न देवताओं में विश्वास करते हैं।

जैनधर्म के अनुसार मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता (प्रमाणमीमांसा पृ. 27-32)
हिंदु धर्म के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही सर्वज्ञ हैं। मनुष्य सर्वज्ञ नहीं हो सकता है।

जैनधर्म के अनुसार ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं है।
वैदिक धर्म के अनुसार ईश्वर सृष्टिकर्ता है

जैनों के मूल ग्रन्थों की भाषा प्राकृत है
हिन्दुओं के मूलग्रन्थों की भाषा संस्कृत है।

जैन पूजा में सभी प्रकार की हिंसा वर्जित है।
हिंदु धर्म के अनुसार पूजा में पशुहिंसा के प्राचीन दृष्टान्त उपलब्ध होते हैं। आजकल भी कहीं-कहीं पशुबलि होती है।

जैन धर्म मोक्ष हेतु पुत्र आवश्यक नहीं है। (ज्ञानार्णव 2/7-11)
हिंदु धर्म के अनुसार पुत्रोत्पत्ति के बिना कोई व्यक्ति मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है। (मनुस्मृति 6/36-37. 9/138)

जैन साधु नवधा भक्तिपूर्वक आहार लेते हैं
हिन्दू संन्यासी नवधा भक्ति के बिना आहार लेते हैं।

जैनधर्म में मांसाहार पर पूर्ण प्रतिबन्ध है। (पुरुषार्थसिद्ध्युपाय-67-68)
हिन्दू धर्म में मांसाहार पर प्रतिबन्ध नहीं है। (मनुस्मृति 5/22, 27, 31, 41, 44, 56, 23, 28, 30, 32, 33, 43, 52-55)

जैनधर्म में मद्यपान पर पूर्णतः प्रतिबन्ध है।
हिन्दुओं में सौत्रामणी यज्ञ में मद्यपान प्रचलित था।

जैन धर्म मे आटा, घी, शकर आदि की पशु मूर्ति बनाकर उसका खाना जैनधर्म में पूर्णतः वर्जित है। (जसहरचरिउ-27)
हिन्दू धर्म में घी, आटा, शकर वगैरह की पशुमूर्ति बनाकर उनका खाना निषिद्ध नहीं है। (मनुस्मृति 3/266-270)

जैनों में श्राद्ध प्रथा नहीं है। (स्याद्वाद मञ्जरी पृ. 97, भावसंग्रह पृ. 50)
हिन्दू धर्म मे पितरों के लिए श्राद्ध करने की परम्परा है।

जैन धर्म मे निर्माल्य द्रव्य के सेवन का निषेध है।
वैदिक धर्म में चढ़ावा प्रसाद के रूप में लिया जाता है।

मनुष्य, जिसने कि निर्वाण प्राप्त कर लिया है, पूर्णत्व को प्राप्त कर चुका होता है।
हिंदु धर्म के अनुसार मनु(ग्रंथ के लेखक) का कहना है कि वह मनुष्य पूर्ण है,जिसकी पत्नी और पुत्र जीवित है।

उपवास, ध्यान, आलोचना आदि के द्वारा प्रायश्चित्त का विधान है।
हिंदु धर्म के अनुसार पशु बलि तथा यज्ञ के द्वारा प्रायश्चित्त का विधान है

जैनों के यहाँ पर्यूषण पर्व मनाया जाता है, जिसमें उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन और ब्रह्मचर्य की आराधना की जाती है।
हिन्दू धर्म में कोई ऐसा विशिष्ट पर्व नहीं है, जिसमें मात्र गुणों की आराधना की जाती हो । अधिकांश पर्व देवी, देवताओं की आराधना से सम्बन्धित हैं।

जैनों के यहाँ आष्टाहिक पर्व, ऋषभ जयन्ती, महावीर जयन्ती, अक्षय तृतीया, श्रुत पञ्चमी आदि मनाए जाते हैं।
हिन्दुओं के यहाँ जैन पर्व नहीं मनाए जाते हैं। यदि किन्हीं पर्वों की तिथि एक ही दिन हो तो भी मनाने के कारण और उद्देश्य पृथक्-पृथक् हैं।

जैनों में तीन प्रकार के तीर्थक्षेत्र माने गए हैं- (1) सिद्ध क्षेत्र, (2) कल्याणक क्षेत्र, (3) अतिशय क्षेत्र (भारत के दिगम्बर जैनतीर्थ, भाग-1, पृ. 10-11)
हिंदु धर्म के अनुसार मोक्षदायक पाँच नगरियाँ मानी गई हैं- (1) अयोध्या (2) मथुरा (3) काशी (4) काञ्ची (5) अवन्तिका (6) माया (हरिद्वार) (7) द्वारका (ब्रह्मपुराण 4/40-91)

पुरातात्त्विक प्रमाणों से सिद्ध होता है कि जैन प्रतिमायें और मन्दिरों का निर्माण हिन्दुओं से पुराना है। (रामास्वामी आयंगर- स्टडीज इन साउथ इण्डियन जैनिज्म) (डॉ. राधाकृष्णन् : इण्डियन फिलासफी पृ. 98, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैनधर्म पृ. 123- 124)
हिन्दुओं में मूर्तिपूजा और मन्दिर निर्माण जैनों के बाद प्रारम्भ हुआ।

जैन वाल्मीकि रामायण को प्रामाणिक नहीं मानते हैं। (धर्मपरीक्षा 15/75-86, 95-98, 16/1-5-6, 12-19, 28-56)
हिन्दू वाल्मीकि रामायण को प्रमाण मानते हैं।

राम शलाकापुरुष (बलभद्र) थे, वे विष्णु के अवतार नहीं थे। (देवसेन भावसंग्रह, पृ. 226-230) :
हिंदु धर्म के अनुसार राम विष्णु के अवतार थे।

जैनधर्म ब्रह्मा, विष्णु और महेश को मान्यता नहीं देता है। (धर्मपरीक्षा 11/30-60, भावसंग्रह 217-222, 224-225, 235-237, 241, 243-255)
हिन्दुओं में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेशः इन तीन की मान्यता है।

जैनों में ब्राह्मणों की सर्वोच्चता स्वीकृत नहीं है
हिन्दुओं में ब्राह्मणों की सर्वोच्चता उनके क्रियाकाण्ड के साथ स्वीकृत हैं।

जैन यह नहीं मानते हैं कि गंगा, यमुना, नर्मदा इत्यादि पवित्र नदियाँ हैं तथा इनमें स्नान करने से मोक्ष होता है। (पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका 25 / 1-7, 1/95, भावसंग्रह 17/35-41)
हिंदु धर्म के अनुसार गंगा, यमुना, नर्मदा इत्यादि के जल में डुबकी लगाने से मोक्ष होता है।

जैन धर्म के अनुसार विष्णु विश्व का पालक नहीं है। (धर्मपरीक्षा 10/20, 26, 10/35-45, 10/57-60)
हिंदु धर्म के अनुसार विष्णु विश्व का पालक है। (धर्मपरीक्षा 10/11-16, 19)

तीर्थंकरों की गृहस्थावस्था की पत्नियों की पूजा नहीं की जाती है। सन्यासी जीवन हेतु ब्रह्मचर्य का पालन प्राथमिक कर्त्तव्य है।
हिंदु धर्म के अनुसार विष्णु-लक्ष्मी, शिव-पार्वती, कृष्ण-रुक्मिणी, राम-सीता इत्यादि दम्पति की पूजा की जाती है।

जैनों का मूल मन्त्र णमोकार मन्त्र है।
हिन्दुओं का मूल मन्त्र गायत्री मन्त्र है।

जैन पूजा का उद्देश्य सांसारिक अभ्युदय (लौकिक वैभव) नहीं, अपितु मोक्ष है। (जैन लॉ, पृ. 11- 12)
हिन्दू पूजा का उद्देश्य सांसारिक अभ्युदय (लौकिक वैभव) की प्राप्ति भी है।

महावीर निर्वाण संवत् का प्रचलन पुराना है
सभी हिन्दू संवत् महावीर निर्वाण के बाद अस्तित्व में आए।

जैनसाधु केशलौंच करते हैं।
हिन्दू साधु केशलौंच नहीं करते हैं।

जैनधर्म निवृत्तिप्रधान है (मन वचन काय के कार्य रोके जाते है)
हिन्दू धर्म प्रवृत्तिप्रधान है (मन वचन काय के कार्य किए जाते है)

जैन न्याय का अनेकान्तवाद (अलग अलग अपेक्षा) वैदिक दर्शनों द्वारा स्वीकृत नहीं है
वैदिक दर्शन सर्वथा द्वैतवाद, अद्वैतवाद, भेदवाद, अभेदवाद, विशिष्टाद्वैतवाद इत्यादि में विश्वास करते हैं।

जैन अवतारवाद (भगवान जन्म लेते है )को नहीं मानते हैं।
हिन्दू अवतारवाद को मानते हैं।

जैन धर्म के अनुसार मोक्ष गए हुए जीव पुनः संसार में नहीं आते हैं।
हिंदू धर्म के अनुसार मोक्षगामी जीव नई सृष्टि होने पर पुनः संसार में आते हैं।

जैनधर्म की परिभाषा बहुत स्पष्ट है।
हिन्दूधर्म की परिभाषा स्पष्ट नहीं है।

छह द्रव्य जहाँ पाए जाते हैं, उसे लोक कहा जाता है। जहाँ मात्र आकाश पाया जाय, उसे अलोक कहते हैं।
हिन्दुओं में छह द्रव्य नहीं माने गए हैं।

जैनों के अनुसार विष्णु सर्वव्यापक नहीं हो सकता है।
हिन्दू के अनुसार विष्णु सर्वव्यापक हैं

जैनों में हिन्दुओं के समान पति के मृत शरीर के साथ स्त्री के जलने की प्रथा कभी नहीं रही। यहाँ सती स्त्री वही कही जाती है, जो पतिव्रता हो
हिन्दुओं में सतीप्रथा- पति के मृत शरीर के साथ स्त्री का जल जाना प्राचीन है। यह अब भी कहीं न कहीं देखी जाती है, यद्यपि इस पर सरकार द्वारा रोक है।

दूसरे धर्म का परित्याग कर जैनधर्म धारण किया जा सकता है
हिंदू धर्म के अनुसार दूसरे धर्म वाला हिन्दू धर्म ग्रहण नहीं कर सकता है। (धर्मशास्त्र का इतिहास, पृ. 255-256)

जैनों के अनुसार कर्म स्वतः फल देते हैं।
हिंदू धर्म के अनुसार मनुष्य के कर्मों का फल ईश्वर देते है

साधु को नग्न होना दिगम्बरों में आवश्यक है। श्वेताम्बरों में भी नग्नता को श्रेष्ठ कहा गया है।
हिन्दू में साधु को नग्न होना आवश्यक नहीं है।

जैनों में आत्महत्या को नरक का कारण कहा गया है। सल्लेखना आत्महत्या नहीं है
हिन्दुओं में गिरिपात, अग्निपात, जल-समाधि इत्यादि विहित है। (धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम-भाग, पृ. 88 )

जैनधर्म में व्यक्ति की पूजा नहीं, गुणों की पूजा होती है
हिन्दुओं में व्यक्ति की पूजा होती है

जैनधर्म अहिंसा प्रधान है।
पुराना वैदिकधर्म अहिंसाप्रधान नहीं रहा है

जैनधर्म में शाकाहारी भोजन अनिवार्य है।
हिंदू धर्म के अनुसार शाकाहार अनिवार्य नहीं है।

जैनों में रात्रिभोजन निषेध है। इसका पालन भी बहुतायत से होता है।
हिंदू धर्म के अनुसार कहीं-कहीं रात्रिभोजन का निषेध किया गया है, किन्तु इसका पालन बहुतायत से नहीं होता है।

जैनधर्म में संन्यास को प्रधान माना गया है।
हिन्दू धर्म में गृहस्थाश्रम को प्रधान माना गया है।

(प्रत्येक) वस्तु स्वातन्त्र्य जैनधर्म की विशेषता है।
हिन्दू धर्म में वस्तु ईश्वराधीन है। वस्तु स्वतंत्रता नही है

जैनधर्मानुसार जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है, परमात्मा की सत्ता में मिल जाना नहीं
हिंदुओ में जीवन का लक्ष्य परमात्मा में मिल जाना

जैन मन्दिर तथा हिन्दू मन्दिर एक दूसरे से अलग हैं। किसी भी जैन मन्दिर में हिन्दू देवी देवताओं की पूजा नहीं होती है।
हिन्दू मन्दिर, जैन मन्दिरों से पृथक् होते हैं। किसी भी हिन्दू मन्दिर में जैन तीर्थंकरों की पूजा नहीं होती है।

दिगम्बर जैनमन्दिरों में तीर्थंकर प्रतिमायें नग्न होती हैं। श्वेताम्बर जैन मन्दिरों में श्वेताम्बर प्रतिमायें वस्त्राभूषणों से सज्जित होती हैं।
हिन्दू मन्दिरों में नग्न प्रतिमायें नहीं होती हैं।

जैनमूर्ति पूजा का लक्ष्य गुणों की प्राप्ति है
हिन्दू पूजा का लक्ष्य वरदान की प्राप्ति तथा सांसारिक अभ्युदय (लौकिक वैभव) की प्राप्ति भी है।

जैनों के अनुसार द्रव्य की अपेक्षा लोक शाश्वत है।
हिन्दुओं के अनुसार लोक की सत्ता परमात्मा में निहित है।

जैन जीव और अजीव को स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। इनमें से जीव चेतनायुक्त है।
हिन्दू दर्शन जीव और अजीव दोनों की सत्ता ब्रह्म में निहित (की बनाई हुई) मानते हैं

जैन वृक्षों में भी जीव मानते हैं।
हिन्दुओं में वृक्षों में जीव मानने के विषय में मतभेद है।

जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक आत्मा स्वतन्त्र है। स्वतन्त्र आत्मा की सत्ता मोक्ष में भी रहती है।
हिंदू धर्म के अनुसार प्रत्येक आत्मा स्वतन्त्र नहीं है। प्रत्येक आत्मा का परमात्मा या ब्रह्म में विलय होता है।

जैन धर्म के अनुसार सांसारिक अवस्था में जीव अपना स्वयं का कर्त्ता है।
हिंदू धर्म के अनुसार सांसारिक अवस्था में भी जीव की क्रियायें परमात्मा की इच्छानुसार होती हैं, स्वतन्त्र नहीं ।

जैनधर्म पुरुषार्थवाद पर आधारित है।
हिन्दू धर्म ईश्वर के प्रति समर्पण पर आधृत है।

जैनों का कर्म सिद्धान्त जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों पर अवलम्बित है। कर्म सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले श्लोकों की संख्या प्रमाण लाखों में है।
हिन्दू जैनों के समान कर्म सिद्धान्त की व्याख्या नहीं करते। उनके कर्म सिद्धान्त की व्याख्या विशद रूप से नहीं पायी जाती हैं।

मोक्ष हेतु शुभाशुभ कर्मों का परित्याग आवश्यक है।
हिन्दू धर्म में ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग और कर्ममार्गः तीनों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती

सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों की एकता मोक्ष का मार्ग है।
हिन्दू धर्म भिन्न-भिन्न मार्गों से मोक्ष मानता है।

जैन ग्रन्थों में मुक्ति, दुःख निवृत्ति, स्वर्ग- नरक आदि का विस्तृत कथन है।
वैदिक संहिताओं में मुक्ति, मोक्ष, दुःख, नरक आदि शब्दों का प्रयोग नहीं मिलता

श्रमण संस्कृति का केन्द्र श्रामण्य रहा है।
वैदिक संस्कृति का केन्द्र यज्ञ रहा है।

जैनग्रन्थों में जो कर्मों के प्रयोग बतलाए हैं, वे प्रायः निष्कामभाव से युक्त (इच्छा रहित) हैं।
मनु ने कहा है कि वेद में जो कर्मों के प्रयोग बतलाए गए हैं, वे प्रायः सकाम भाव (इच्छा सहित) से युक्त हैं।

(“जैन धर्म की मौलिक विशेषताए” पुस्तक से संकलन)

जय जिनेंद्र

इस पाठ के आधार पर शाम को प्रश्नोत्तर होंगे, कोई भी शंका या शिकायत हो तो हमे पर्सनली पूछ सकते है*

( अगर ये पाठ आपको अच्छा लगा तो प्रतिज्ञा बद्ध होकर इस सत्य का प्रचार कीजिये, अन्य ग्रुप में इसे भेजे )

इसके पूर्व के पाठ पढ़ने के लिए ये लिंक पर जाए

www.dharmkamarmblog.wordpress.com