शिक्षा, परीक्षा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार

आज शिक्षा का फल क्या होना चाहिए इस ओर दृष्टि ही नहीं बस ९० प्रतिशत की ओर दृष्टि है।

आज मात्र पैसे की ओर दृष्टि है वस्तु की ओर नहीं ये दिवालियापन है। मात्र पैसा खाने की चीज नहीं है ऐसी शिक्षा घोलकर भी पी ली तो वह जीवन में काम आने वाली नहीं।

आज यह स्थिति है कि कोई अपने देश में ज्ञान प्राप्त करे, तो ज्ञानी नहीं, कितु विदेश से ज्ञान प्राप्त करके आए तो कोई भी स्वीकार कर लेता है।

आज साहित्य में पाप-पुण्य आत्म तत्व की कोई बात ही नहीं। आज सामाजिक व्यवस्था समाप्त आत्मा के ऊपर मूर्त जड़ मोह का साम्राज्य छा चुका है।

इतिहास नहीं पढ़ने से आज सब कुछ टूट रहा है, बिखर रहा है समाज।

पहले परीक्षा नहीं आलोड़न, मंथन, मनन होता था।

शिक्षा परीक्षा के लिए आवश्यक है लेकिन शिक्षा का उद्देश्य परीक्षा नहीं होना चाहिए। आज शिक्षक, शिक्षिकाओं, अभिभावकों और बच्चों की सभी की दृष्टि मात्र परीक्षा की ओर है। परीक्षा और नतीजा शिक्षा का मूल्यांकन नहीं है, वह बहुत कुछ रखता है अंदर अपने, लेकिन परीक्षा की दहाड़ सुनते ही छलांग लेना समाप्त हो जाता है, ये शिक्षा नहीं। भारतीय संस्कृति के अनुसार आज तन्मय बच्चा नहीं हो पाता। पूर्व-पूर्व की विद्या आगे रहना अनिवार्य है। परीक्षा शिक्षा का अभिन्न अंग हो सकता है लेकिन मुख्य अंग नहीं। शिक्षा यदि संस्कारों के साथ है तो भीति/भय की संदेह की कोई बात नहीं।
आज जो अंधकार जैसा छा रहा है वह सही शिक्षा का परिणाम नहीं। शिक्षा की संस्था में काम करने वालो सुनो ! यह ट्यूशन की पद्धति भारत से गायब हो जाये ऐसा कार्य करो, क्योंकि ट्यूशन के कारण स्मृति भंग हो रही है।

आज भीतर की ओर जाने की कोई शिक्षा नहीं दी जा रही है जबकि ये सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा है। आज शिक्षा के क्षेत्र में करोड़ों रुपये व्यय हो रहे हैं खरबों भी कह दो तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इतना व्यय होने के उपरांत भी भीतरी कोई संकेत उसे नहीं मिल रहा है। हम उसको सुशिक्षित कैसे कहें? सुशिक्षा कैसे कहें? धर्म के साथ शिक्षा दीजिये जिससे उनका कल्याण हो जाये। बच्चों को संयम का यह शिक्षण अवश्य देना, हाथी है तो अंकुश है, घोड़ा है तो उसके लिए लगाम है, ऊँट है तो नकील है, ओर गाड़ियाँ हैं तो ब्रेक है। मनुष्य भी एक ऐसा पॉवरफुल व्यक्ति है उसके लिए क्या है? ब्रेन को अपने-अपने अंडर में रखें। मन को अपने काबू में रखेगा तो स्वयं को भी सुरक्षित रख लेगा और दूसरों को भी सुरक्षित रखने में योगदान देगा। यदि चारित्र को उच्च नहीं बनाओगे, मन को संयमित नहीं बना पाओगे, तो यह एजुकेशन नहीं।
पहले हेय-उपादेय का ज्ञान कराना शिक्षा का मूल उद्देश्य होता था और यह मूल उद्देश्य होना चाहिए। पहले सभी पुरुषार्थों का जीवन में कहाँ तक योगदान है, इसका समग्र अध्ययन कराया जाता था। आज ये नहीं होने के कारण ये सब व्यवस्थाएं छिन्न-भिन्न हो रही हैं।

आज तो घर में कोई नहीं रहता, दिनभर घर में ताला लटका रहता है। डयूटी देने जाते हैं, डयूटी देकर आ जाते हैं और थोड़ा समय मिल जाये तो भोजन पानी हो गया, वह भी समय नहीं रहा तो थाली सजी–सजाई आर्डर पर आ जाती है कल्पवृक्ष कामधेनु की भाँति। बटन दबा दो.आ जाये। बच्चे भी स्कूल चले जाते हैं, न माँ का प्यार, ना पिता जी का प्यार, ना और कोई विशेष कोई भी व्यवस्था नहीं।
लिखना और पढ़ना शिक्षा के क्षेत्र में गौण मानते हैं और सुनना सुनाना मुख्य मानते हैं। जो नियंत्रण में रहते हैं उन्हें परीक्षा वरदान सिद्ध होती है।
विद्यालय में प्रवेश का अर्थ है कि परीक्षा प्रारंभ हो गई।

पहले पढ़ने लिखने की बात न कह करके उसके गुणधर्म से परिचय कराया जाता था। बच्चे को घुट्टी में सब कुछ दिया जाता है वह पचा लेगा ये विधा प्राचीन काल में थी इसे मैं महत्वपूर्ण समझता हूँ। बोझ को देकर के बोध बुझ जाता है, बोझ है बस्ता उसे देखकर उसका दिमाग ही बुझ जाता है। शिक्षा हमेशा-हमेशा सुन करके भी गहराई तक पहुँचा सकते हैं। मुझे क्या चाहिए उसकी प्राप्ति कैसे होगी ये शिक्षा का सबसे अच्छा परिणाम है। विदेशी शिक्षा में आज आप स्वयं बिक रहे हो जबकि देशी शिक्षा से आप अपने आर्ट को तैयार करके स्वयं बेच सकते हो।

विदेशी शिक्षा में मूल्यांकन जड़ का किया जाता है मूल्यांकन करने वाले का कोई मूल्यांकन नहीं होता। देशी शिक्षा में स्वयं का बिकना असंभव है। वह श्रम करता है। उनके अभिभावकों ने ऐसा मंत्र फूँका है, उन्हें सही दिशा दी है। आज मंत्र चले गये यंत्र आ गये, तंत्र समाप्त हो गए। मंत्र सिद्ध करता है तो हजारों किलो मीटर पर भी वह काम करता है।
जहाँ शिक्षा व्यवस्था नहीं है उन्हें सिखाना ही वास्तव में शिक्षा है। वर्तमान में शिक्षा काल पहले फिर दीक्षा इसलिए ये स्थिति है जबकि पहले दीक्षा काल फिर शिक्षा काल यही करना। शिक्षा का सही अर्थ है।
बच्चा चलना सीखता है तो लिखकर नहीं चलकर सीखता है। जो प्रयोग नहीं करता उसे आगे की शिक्षा दी नहीं जाती। अपने जीवन में बच्चे उदारता के साथ दूसरे के जीवन का भी संरक्षण कर सके, इस तरह की शिक्षा दो ।उदारता के साथ जैसे जल सबको उपलब्ध हो वैसे ही शिक्षा भी जो भी अपढ़ हैं सभी को उपलब्ध हो। उसको ऐसे समझा दो कि वह हमेशा आपको याद रखे। बूंद एक होती है और दूसरी बूंद से मित्रता रखती है तो वह गतिशील हो जाती है। जड़ होकर भी फिर सागर तक पहुँच जाती है। शिक्षा सबके लिए उपयोगी हो जीवन को उन्नत बनाने के लिए। जो व्यक्ति भाषा को नहीं समझेगा तो संघर्ष तो होगा ही।

जिस भाषा में शिक्षा दी जायेगी उसी साहित्य से वह परिचित होगा अपनी मातृभाषा से वंचित रह जायेगा इसलिए संक्रमण से बच नहीं पायेगा दूसरे साहित्य अपनाते चले जाते है और अपना भूल जाते हैं। क्रय-विक्रय शिक्षा के क्षेत्र में नहीं होना चाहिए। आज इसी कारण सारी जनता परेशान है। जिस देश में जो विज्ञान है उसे हम लेते जायें ये शिक्षा है लेकिन शिक्षा की बात जहाँ आती है वहाँ किसी विशेष देश की भाषा के माध्यम से ही हम सब जगह शिक्षा दें ये गलत है इससे विकास रुक रहा है हम उलझना नहीं चाहते हैं सुलझना चाहते हैं। आज जीव विज्ञान को भी पढ़ते हैं तो मात्र नौकरी का उद्देश्य है जीवकाण्ड का नहीं। उद्देश्य हमारा शिक्षा देना है तो मात्र अंग्रेजी भाषा में ही देंगे, ये क्यों?

शिक्षा की व्यापकता को कभी नहीं भूलना। मूल को मजबूत बनाओ। शिक्षा अपने आप विकसित होगी मातृभाषा का यदि ध्यान रहे तो। विज्ञान या अंग्रेजी भाषा की शिक्षा का अंग नहीं मानेंगे।
रागी व द्वेषी व्यक्ति कभी भी न सुख प्राप्त कर सकता है और न किसी को सुख दे सकता है। विज्ञान के विकास के लिए किसी भी देश ने अपनी मातृभाषा को शिक्षा के लिए नहीं छोड़ा सभी जगह अपनी-अपनी मातृभाषा में शिक्षा दी जाती है। विकसित देशों की ये स्थिति है तो विकासशील भारत को क्या करना? विकास की बात यदि करना है तो शिक्षा की बात करो। वृक्ष हमेशा ऊर्ध्वगामी होता है। आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगामी है। इसी प्रकार शिक्षा का स्वरूप भी ऊर्ध्वगामी हो।

साधन के बारे में हमारा आग्रह नहीं है कम्प्यूटर ने भी संस्कृत भाषा को सर्वश्रेष्ठ माना है। हमारी शिक्षा संस्थाएँ विश्वविद्यालय तक पहुँचती हैं लेकिन कॉलेज जो हैं वो विश्वविद्यालय तक नहीं पहुँचते।
विश्व विद्यालय में हर तरह की शिक्षाएँ हैं, विज्ञान में ये नहीं है, बच्चों का अधूरापन रहता है। जब तक ग्रेजुएशन नहीं होता तब तक शिक्षा का विभाजन नहीं होना चाहिए। हर तरह की शिक्षा उन्हें मिलनी चाहिए।
अधिकार प्राप्त हो फिर आप किसी भी तरफ चले जायें। लेकिन विज्ञान आ गया फिर वह किसी भी तरफ नहीं जा पाता। जो होशियार है उसको क्या होशियार करना जिसको कुछ नहीं आता उसको हमें तैयार करना चाहिए ये हमारा उद्देश्य है। जो हँस रहा है वह आपके ऊपर हँसेगा उसे हँसाने की जरूरत नहीं लेकिन जो रो रहा है उसे हँसाने की आवश्यकता है नियमावली कट्टरता की प्रतीक नहीं यह कण्डीशन परिस्थिति के साथ बनाई जाती है।

कण्डीशन यदि फैल हो गया तो क्या रहा? प्राणवायु का भी कण्डीशन मात्रा अनुपात रहता है, उससे बाहर होने पर खराब हो जाती है। विज्ञान की शिक्षा के लिए मेरा निषेध नहीं है लेकिन अच्छी तरह से सारी शिक्षाएँ देकर आगे बढ़ाइये। आगे जाकर वह फेल नहीं होगा। नीचे एक तना मजबूत बनाओ फिर शाखाओं की बात करो। बच्चों का तना मजबूत नहीं हो पाता है हम विभिन्न भाषाओं को रख देते हैं। शिक्षक के अन्दर विद्यार्थी की भूख जागृत करने की कला होनी चाहिए। वह आपसे भी आगे निकलेगा। आज शिक्षा के क्षेत्र में राजनीति का प्रवेश हुआ है इसलिए ये व्यवसायीकरण हो गया है। आज प्रजानीति का उपयोग नहीं होने से राजनीति शिक्षा में आ गई।

अर्थ के लिए नहीं शिक्षा परमार्थ के लिए होनी चाहिए। विज्ञान शिक्षा नहीं विधा (प्रक्रिया) है। जिस भाषा में परलोक के बारे में कोई साधन सामग्री का विश्लेषण नहीं है उसकी बात यहाँ मत करो।
आय का स्रोत मात्र यहीं नहीं परलोक में भी ये आय को संचय करके जायें अर्थात् भटके नहीं परलोक में भी अच्छे संस्कारों को लेकर जाये। व्यवसायीकरण के कारण अर्थनीति की ओर शिक्षा चली गई। शहरीकरण के कारण नियमावली टूट रही है। बच्चों से आप निराश हो जाओ तो अपने आप वह सीधा हो जायेगा लेकिन हम दया करके उसे वरदान नहीं अभिशाप सिद्ध हो रहे हैं। बाँध बाँधा जाता है तो जितना-जितना पानी का संग्रह ज्यादा होता है तो ऊपर हाइट बढ़ाना बंद कर देते हैं ताकि पानी का घनत्व पृथ्वी के ऊपर फैल जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में भी वेट बढ़े नहीं क्षेत्र बढ़ता चला जाये ताकि अनुशासन के नियम ढीले न हो अर्थात् नियमावली से हटकर कोई काम नहीं हो चाहे वह किनारे पर भी हो लेकिन नियमित हो। आगे बढ़ने में भाषा ही काम में आती है। लिखने से नहीं बोलने से ही भाषा का प्रभाव पड़ता है। जेसे आप अन्न खाते है, पानी पीते है, वह प्राण का रूप धारण कर लेता है वैसे ही जो कुछ आचरण है वह भाषानुसार हो जाता है, वैसा ही उसका रहन-सहन, खान-पान, चाल-ढाल आदि-आदि हो जाती है।

शिक्षा बाहर या भीतर की कोई भी हो जिससे हमारा जीवन उन्नत हो, दया-करुणा-प्रेम से जीवन को ओत-प्रोत कर दे वह शिक्षा सही है। आज तो हमें बच्चों को डॉक्टर इंजीनियर बनाना है इसकी होड़ है, नीति न्याय से कोई मतलब नहीं। भाषा के बिना विद्या नहीं आती है यह ठीक है लेकिन भाषा मात्र ही नहीं भाषा के साथ भाव रूप हाथ मिलेगा तब तालियाँ बजेंगी। भावों से सुख शांति की स्थापना कर सकते हैं। हमें अपने भीतर भावों को पैदा करना होगा दूसरी भाषा के माध्यम से हममें वह भाव नहीं आ पायेगा। शिक्षा के माध्यम से किसी एक निश्चित लक्ष्य तक विद्यार्थी को पहुँचाना ही शिक्षा का मूल उद्देश्य होना चाहिए। रत्नों का प्रभाव शरीर पर जिस प्रकार से पड़ता है उसी प्रकार रत्नों के प्रभाव की तरह जीवन में शिक्षा का भी प्रभाव पड़ता है। शिक्षा में वही सब कुछ दिया जाता है वही संस्कार दिया जाता है जो जीवन भर उसके काम आये।
संस्कारित शिक्षा जो होती है वह हमेशा सामाजिक व दार्शनिक विचारों को सर मस्तिष्क तक ले जाने में सक्षम होती है। आज दार्शनिक व सामाजिक आधार ही नहीं रहा सब चौपट हो गये हैं। सुसंस्कारित शिक्षा का प्रचार-प्रसार करिये इसे अर्थमय न बनायें।

जीवन बनाने के साथ-साथ जीवन सुरक्षित करेगी संस्कारित शिक्षा। ज्यादा न सुनकर प्रयोग चालू करो। आज शिक्षा व चिकित्सा इन दोनों क्षेत्रों में प्रयोग न होने से इन दोनों की रीढ़ ही टूट सी गई है। शिक्षा और चिकित्सा का जोड़ा है यह तभी सही हो जब शिक्षा में शिक्षा के साथ, अध्ययन के साथ प्रयोग को महत्व दिया जायेगा। शिक्षा व संस्कार का प्रयोग यदि करते हैं तो अगले जीवन में भी वह काम करेगा।
जिस प्रकार कृषक विधिवत कार्य करता है तो फसल लहलहा उठती है। उसी प्रकार केवल बौद्धिक आयाम का नाम शिक्षा नहीं उसका विधिवत् प्रयोग भी होना आवश्यक है।
आजकल की शिक्षा-गुंथा आटा बाहर रखा हुआ है जिस पर पपड़ी जम गई है उसके जैसी है। ऐसे आटे की लोई निकाल कर रोटी बनायेंगे तो अच्छे-अच्छे पाक शास्त्री भी फेल हो जायेंगे।
मात्र रुचि के अनुरूप भी शिक्षा नहीं देना चाहिए। जैसे कोई मीठा-मीठा ही खाना चाहता है दूसरी वस्तु देने पर भूख नहीं है ऐसा कह देता है और मीठा दे दो तो खा लेता है। ऐसा करने से लीवर कमजोर हो जायेगा।
शिक्षा आदि चरण में ही क्यों दी जाती है? क्योंकि बाद में मान्यता नहीं रहती, मनाना रहता है। मानता है बालक तभी तक शिक्षा है। तर्क के बाद मानने के लिए आधार चाहिए वह मानता तो है किन्तु देर से।
जैसे ठोका-ठाकी किये बिना मृदंग, तबला आदि में स्वर नहीं फूटते रंग नहीं आता। इसमें शिल्पी के हाथ की करामात है तर्जनी, मध्यमा, हथेली का प्रयोग आवश्यक है उसी प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रयोग आवश्यक है। शिखर तक पहुँचना, ऊँचाइयों को छूना आदि-आदि सब प्रयोग से ही होता है।

संगीत में सराबोर होना संस्कार व प्रयोग के माध्यम से होता है लेकिन आज का संगीत तो सराबोर तो नहीं बोर करता है। बेनटेक्स के गहने देखने में सोने स्वर्ण जैसे लगते हैं लेकिन उन आभरणों की कीमत एक हजार भी नहीं है। इसी प्रकार विदेशी शिक्षा आर्टिफिशिल गहनों जैसी है उसकी कीमत भी उतनी ही है। विदेश अर्थात् विशेष स्तर के देश में रहने वाले। विदेशी शिक्षा देखने में स्टेण्डर्ड जैसी लगती है लेकिन संस्कार विहीन होने से उसका कोई मूल्य नहीं है। विदेशी शिक्षा से अपने आपको और अपनी संतानों को भी दूर रखिये। विशेष रूप से परिश्रम करिये, प्रयोग करिये और सबको भी समझा दीजिये।
अंग्रेजी भाषा से बालक खुश्क तो होगा लेकिन खुश नहीं होगा क्योंकि निगेटिव शब्द हैं।

शिक्षा का यदि लक्ष्य निर्धारित नहीं है तो समझ लो भटक रहे हो। आज दर्शन नहीं है इसलिए निर्धारित शिक्षा है हम इसे शिक्षा रूप संज्ञा दे नहीं सकते आज दर्शन नहीं प्रदर्शन है। प्रदर्शन उथला होता है दर्शन गहराता है। बच्चों को बहुत पढ़ना होता है उससे स्मृति ठंडी हो जाती है। सुनने से स्मृति बढ़ती है, सुनने में एकाग्रता ज्यादा होती है किन्तु आज पढ़ने और पढ़ाने की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि स्मृति की आवश्यकता नहीं है।
आज की अंग्रेजी शिक्षा हमारे लिए अभिशाप बनती जा रही है। कुछ काल और व्यतीत होने पर पिता-माँ, भाई-बहिन कौन हैं यह भी बता नहीं सकेगा। आज अंग्रेजी भाषा की शिक्षा देकर आप अपनी संतान की अपने सामने-सामने ही बुद्धि भ्रष्ट कर देंगे। प्रयोगहीन, संस्कारहीन विदेशी शिक्षा से दूर रहना चाहिए। अंग्रेजी भाषा में न साहित्य है, न शब्द हैं, न ही आचरण है फिर आप लोग अपने बच्चों को क्या पढ़ाना चाह रहे हैं? विद्या का उद्देश्य अंग्रेजी भाषा में फलीभूत नहीं होगा। अंग्रेजी भाषा केवल नौकरी के लिए पढ़ा रहे हो तो इसका मतलब है शिक्षा के उद्देश्य का सही ज्ञान आपको नहीं हुआ।
शिक्षा, विद्या अर्जन के बाद अभिमान, परिग्रह, कषाय आदि घटती जाती है, घटना चाहिए तभी सही शिक्षा है।

शिक्षा के प्रयोग से कषाय घटेगी और उम्र बढ़ेगी।

कषाय भिड़न्त जितनी होगी उतना ही उसने शिक्षा का महत्व नहीं समझा यह मानना होगा। रोये-धोये, भिड़े ऐसी शिक्षा क्या शिक्षा है?

जिस समय जो योग्य था वह नहीं दिया तो काहे की शिक्षा? वह तो शब्द मात्र है।

शिक्षा के क्षेत्र में लेखन ही महत्वपूर्ण नहीं है। अध्यापन व प्रयोग को ही महत्वपूर्ण मानता हूँ।

प्रयोग चालू करें, शिक्षा को आप जीवित जाने। जो सोया है उसे जगा देती है यह शिक्षा है,ये पक्का है।

पहले गुरुकुल होते थे और पेड़ के नीचे बैठकर अध्ययन-अध्यापन, प्रयोग हो जाता था।महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि-आदि नहीं थे।

आज बच्चों की पीठ में बस्ता लदे रहते हैं। बच्चे हों, विद्यार्थी हों, यात्री हों सभी पीठ पर लादे घूम रहे हैं। आपकी शिक्षा में बोझ है बच्चों की पीठ पर किन्तु बोध नहीं।

पृष्ठों के माध्यम से, शब्दों की परिगणना के माध्यम से आपका अर्थ गौरव नहीं बनेगा। कम शब्दों में भी अर्थ गौरव ज्यादा हो सकता है।

आज पढ़ना भी मात्र नौकरी के लिए कर रहे हैं। एक बार में अर्थ निकल गया तो संतुष्ट हो जाते हैं। जबकि बार-बार पढ़े तो और-और रहस्य मिलेगा।

इंग्लिश का आइ बनाते हैं इसमें एक रेखा खींची और दोनों ओर से आड़ी रेखा खींचकर रेखा को सीमित कर दिया अर्थात् उसमें विकास नहीं, उन्नति रुक गई। यदि टी बना है तो उसमें रेखा खींचकर ऊपर से मात्र बंद किया मतलब उद्देश्य निश्चित है, विशालता है। आई में विशालता नहीं।

शिक्षा का उद्देश्य विस्तृत/विकसित होना चाहिए वह आई में नहीं हुआ, टी में फैल गया दोनों तरपक्र ।

आज आप क्या पढ़ा रहे हैं? क्या दे रहे हैं? क्या खर्च कर रहे हैं ? कितना खर्च कर रहे हैं? इससे क्या मिलेगा? ये भी पता नहीं। आज पैरों का, हाथों का उपयोग नहीं हो रहा है। बैठे – बैठे मात्र पढ़ने से हेल्थ, वेल्थ ओर यहाँ तक की करेंट भी समाप्त।

आप गाड़ी चलाते हैं, बुद्धि से चलाते हैं कि मात्र पैरों से। मात्र पैरों से चलाना आचरण नहीं किन्तु ऐसी विद्या जो आचरण/चारित्र की परिचायक है वही सही विद्या है।

आज शिक्षा का स्तर इतना बढ़ गया है कि पढ़ा लिखा होकर भी असभ्य वातावरण में जी रहा है।

आज युग बहुत तीव्रता से आगे बढ़ रहा है। अंग्रेजी की होड़ में प्रभु गायब, हर व्यक्ति का व्यक्तित्व समाप्ति की ओर है जिस लाइन, जिस पद्धति से चल रहा है उसे देखकर तो नहीं लगता कुछ बचेगा।

बुद्धि के माध्यम से समझे और पैरों से आचरण की ओर जायें। पैरों से यदि आचरण की ओर कदम नहीं बढ़ेंगे तो मात्र बुद्धि से कुछ नहीं होने वाला, कुछ हाथ नहीं लगेगा ऐसी शिक्षा से।

जैसे भूख से अधिक खाने पर अजीर्ण हो जाता है अर्थात् अन्न भी विष का रूप ले लेता है, जानलेवा हो जाता है उसी प्रकार आज की बुद्धि, आज की शिक्षा प्राण लेवा बन रही है।

अब गाँधी जी आदि पुरुषों को मात्र १५ अगस्त तथा २६ जनवरी के दिन ही याद किया जाता है। इसी प्रकार हिन्दी को मात्र हिन्द दिवस के दिन याद करेंगे।

पहले थोड़ा सा सिर पर हाथ फेरते ही दिमाग में बात आ जाती थी लेकिन अब तो ठोकने के बाद भी कुछ नहीं आता।

पहले जो शिक्षा थी उसमें लिखना कम होता था प्रयोग ज्यादा था। दो बार याद करो अभ्यास करोगे तो पच जायेगा तथा अभ्यास नहीं करने पर बच जाता है।

अनभ्यासे विषं विद्या, अजीर्णे भोजनं विषं ऐसा कहा है।

बहुत ज्यादा पढ़ने की आवश्यकता नहीं, गिनने की आवश्यकता नहीं, गुनने की आवश्यकता है। बुद्धि का उपयोग कीजिये।

आज ऐसे-ऐसे विद्यालय हैं जहाँ विद्या नहीं मिलती अलग से प्रशिक्षण, ट्यूशन -इन ट्यूशन चले हैं जैसे विद्यालयों में जो आगे दिया जाने वाला है वह पहले ही दे देते हैं।

जैसे आहार में सौंफ, इलायची, लौंग आदि-आदि शुरू में दे दो ऐसा है क्या? नहीं रोटी-पानी, दाल आदि-आदि सब में से जिसे पूर्व में देना है, उसे पूर्व में तथा बाद में जो देने लायक है, वह बाद में देना नहीं तो हानिकारक हो जायेगा।

ज्यादा पढ़-पढ़ करके बुद्धि का प्रयोग यंत्र बनाने में नहीं करना, पैरों का प्रयोग करिये।

रोबोट यंत्र क्या है? जैसा कहो वैसा सब कुछ करता जाता है। यंत्र चलाने वाला ही विस्मृत हो जाये गलत बटन दब जाये तो बटन दबाने वाले को ही दोनों हाथों से दबोच ले ऐसा ही आज हो रहा है। वह यंत्र रोक करके कभी कृतज्ञता व्यक्त नहीं कर पायेगा, इससे उसे कुछ लेना-देना नहीं है।

जैसे डॉक्टर रोग देखकर दवाई देता है, उसको उल्टी न हो जाये, दवाई गले उतर जाये ताकि ठीक हो जाये। उसी प्रकार ऐसी शिक्षा, ऐसा वक्तव्य दें कि उसके जीवनपर्यत काम आ सके। यह प्रयोगात्मक शिक्षा जल्दी से ग्राह्य होती है।

आज टीचिंग के स्थान पर प्रयोग रख दिया यानि १० प्रतिशत ही प्रयोग किया जा रहा है जो कार्यकारी नहीं। प्रयोग में पूरे नंबर मिलते हैं। प्रयोग के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है, अध्ययन का समय तो निर्धारित है।

कोई भी विषय को पढ़ने में, पढ़कर समझने में घंटों लगते हैं और उसी को दृश्य या झाँकियों के माध्यम से साकार देखने से एक मिनट में ज्ञान प्राप्त कर लेता है।

झाँकियाँ क्या हैं? विचारों की आकृति हैं। ऐसी प्रस्तुति हो कि सामने वाला देखकर ही बोध को प्राप्त हो जाये। क्योंकि सामने वाले दर्शक के पास पूरा इतिहास पढ़ने का तो टाइम तो है ही नहीं। जो आप बताना चाह रहे हैं वह उसके जीवन में उतर जाये उसके पल्ले पड़ जाये, गले उतर जाये वहीं सही शिक्षा है।

अनपढ़ व्यक्ति प्रयोग कर करके बहुत कुछ सीख जाता है। और आज प्रयोग के अभाव में पिछड़ते जा रहे हैं।

गम्य दुर्गम्य/अगम्य वस्तु तक हमारी दुबली-पतली बुद्धि भी जिससे पहुँचती है उसी का नाम तो शिक्षा है। दुबली-पतली भले हो लेकिन पकड़ती तो है कुछ न कुछ। काया छोटी है लेकिन बुद्धि छोटी नहीं, चोटी की है फिर भी चोटी नहीं होती। चोटी की बुद्धि है यानी वह बुद्धि छोटी नहीं है वो दुबली पतली नहीं है वो बहुत आगे की है।

शिक्षा का आधार क्या है? सामाजिक और दर्शन।

आज शिक्षा में सामाजिक ज्ञान समाप्त कर रहे हैं और दर्शन को तो बिल्कुल देखना ही नहीं चाहते। साइंस वाले दूरदर्शन से देख रहे हैं हम दर्शन के प्रेमी हैं और आप लोग दूरदर्शन के आदि हो गये हैं, दर्शन को तो दूर रख दिया है।

दूरदर्शन देखते-देखते, सुनते-सुनते चश्मा लग जाता है, उतरता ही नहीं धागा बांधना पड़ता है और कहता है गाँधी छाप है। आज तो आपके बच्चे का जीवन प्रारम्भ ही दूरदर्शन से है।

भैया दूरदृष्टि रखो। दूरदृष्टि रखने से अपने आपके भविष्य के बारे में और अतीत के बारे में ज्ञान प्रारम्भ होता है।

जब हम आठवीं कक्षा में पढ़ते थे तब की बात है। एक छात्र का नाम व सरनेम था रामचन्द्र पांडुरंग कर मर कर। इसको अंग्रेजी में अनुवादित किया तो-राममून पांडु कलर डू। डू इस प्रकार इंग्लिश का नाम हो गया। इतना परिवर्तन विपरीत दिशा में हो गया यह गलत है।

पथ में चलते-चलते थोड़ा साइड होकर पुन: रास्ते पर आना तो ठीक है लेकिन बिल्कुल विपरीत में चली गई है आज की शिक्षा पद्धति। फिर भी जागृत नहीं हो रहे हैं।

सब शब्दों का अनुवाद, भावानुवाद हो सकता है लेकिन व्यक्ति या देश के नाम का कोई दूसरा भावानुवाद नहीं होता है।

अध्यापन और प्रयोग के द्वारा निश्चित आदर्श तक पहुँचाना ही शिक्षा है। आजकल प्रयोग नहीं हो रहा है।

पहले परीक्षा नहीं प्रयोग होते थे। आज तो पाठ्यक्रम ही गलत-गलत दिया जा रहा है।

हुण्डावसर्पिणी काल में वृद्धि बुराइयों की तथा हास अच्छाईयों का होता जायेगा।

न्याय का पक्ष वहीं लेता है जिसकी शिक्षा अच्छी होती है। कहीं न कहीं अटकाव होता है तो भटकाव हो जाता है।

मर्यादा का भंग बड़ों से, गुरुओं से, शिक्षकों से गलती होती है तो नीति ही उनके कान पकड़ती है इसलिए शिक्षा ही सबसे बड़ी माँ है। मर्यादा का भंग नहीं होना चाहिए, कर्तव्य का पालन करते जायें।

संकेत और शिक्षा के माध्यम से जो पूर्वजों ने दिया हे वह हमारी निधि है। उसे सुरक्षित रखिये।

जिसमें आत्मा का अनुसंधान हो वही सही शिक्षा है। आत्मा की निधि का ज्ञान सही शिक्षा से होगा।

अच्छे भावों के साथ, अच्छे क्षेत्र पर, अच्छे व्यक्तियों के बीच शिक्षा प्राप्त करने के लिए बच्चों को रखेंगे तो एक अच्छा नागरिक बनेगा वह बच्चा।

पहले तो आत्मा के विकास के लिए परमार्थ के विकास के लिए शिक्षा होती थी। आजकल अर्थ का बोल बोला है।

स्वर्गों में आज तक विश्वविद्यालय नहीं खुले। क्यों? केवली वहाँ जाते नहीं। वे स्वर्गवासी भोगविलासी हैं। भोगभूमि भी नहीं जाते हैं केवली भगवान। यहाँ की भूमि में ही केवली भगवान् विचरण करते हैं इसलिए कर्मभूमि की धरती ही शिक्षा का केन्द्र है।

यहाँ कर्मभूमि की शिक्षा की स्वर्गों में भी आरती उतारी जाता है आठ वर्ष अंतर्मुहूर्त के बाद शिक्षा प्रारम्भ हो जाती हैं।

एकमात्र संकेत और शिक्षा ही हमें जागृत करने के साधन हैं इनके द्वारा संकेतों की गहराई तक पहुँचते हैं। अहिंसा करुणा वात्सल्य की शिक्षा को जान सकते हैं। अन्य कोई शिक्षा का मूल्य नहीं।

जो हमें मिला है उसे सब तक पहुँचाने, बाँटने का आधार है तो वह है शिक्षा। शिक्षा आधार स्तंभ भी है।

शिक्षण का कार्य दूसरों के लिए कर रहे हैं ऐसा नहीं, स्वयं के लिए आनंददायी और गहराई में पहुँचने का, डुबकी लगाने का उपक्रम है। तैराक की तरह वह स्वयं अनुभव कर सकता है।

विद्यालयों में ही शिक्षण हो ऐसा नहीं किन्तु यह शिक्षक का कर्तव्य है कि उसको किस ढंग से कब, कहाँ, कैसे प्रदर्शित करना है इसकी कला होना चाहिए। वक्तव्य का अर्थ कुछ भी कहें ऐसा नहीं किन्तु कहने योग्य को कहना वक्तव्य है।

शिक्षा से बढ़कर के कोई भी वस्तु नहीं है। चाहे देवगति हो, तिर्यचगति हो, मनुष्य गति हो सबमें प्रशिक्षण चलता है।

नारकीय प्रशिक्षित रहते हैं वो वेदना प्रशिक्षित कर देती हैं कि ऐसा किया इसलिए ऐसा हुआ है।

रावण को पहले समझ में नहीं आई थी लेकिन नरकों में अवधिज्ञान, प्रत्यक्षज्ञान होने से सब बात समझ में आ गई। सारे विषय अपने आप अलग हो जाते है जब सम्यग्ज्ञान होता है।

आज की पीढ़ी को विषयों से विरक्ति हो, विषयों से दूर हो इस प्रकार का शिक्षण देना चाहिए। ये मुख्य है हाँ फिर तो आगे उन्नति की ओर वह बढ़ता जायेगा।

मन को आप काबू में रखो, आपको शिक्षा बहुत कीमती होगी यदि मन को आधीन कर लिया तो। ध्यान रखो सबसे ज्यादा कमजोर और अनिष्टकारी कार्य हो सकता है तो वो मन के माध्यम से यही शिक्षा सभी ग्रन्थों में दी है।

पुरुष के लिए नारी विषय है, नारी के लिए पुरुष विषय है इसलिए दोनों एक-दूसरे से बचें क्योंकि दोनों के योग से कषाय होगी तथा दोनों के नहीं मिलने से हित होगा यह शिक्षा दी है ग्रन्थों में।

यदि स्त्री-पुरुष का मिलना है तो दो मिल गये, विवाह/पाणिग्रहण हो गया और गृहस्थाश्रम स्वीकार कर लें फिर और किसी से नहीं मिलना यह वर्ण व्यवस्था बताई हैं। ये सब क्या है? शिक्षा है। भूख लगे तो दे दो नहीं तो बिल्कुल नहीं देना।

पहले शिक्षा आर्यिका-आर्यिकाओं को तथा बालिकाओं को देती थी तथा श्रमण-श्रमण को तथा बालकों देते थे। देओ और अपना-अपना निर्वाह करो और जब समवसरण लगे तो सब मिल जाओ।

आज अव्यवस्थाएँ हो रही हैं जिससे कई समस्याएँ सामने आ रही हैं। आज यह विदेशी शिक्षा प्रणाली के कारण कन्या व छात्रशाला एक हो गई है।

पहले छात्र-छात्राओं के अलग-अलग विद्यालय होते थे, दक्षिण में भी यहीं व्यवस्था थी।

सबसे ज्यादा अमेरिका में सामाजिक अव्यवस्थाएँ फैल रही हैं उनका कारण इस प्रकार की शिक्षा प्रणाली ही है।

पहले ब्रह्मचर्याश्रम में गुरुकुल में सब शिक्षा दी जाती थी फिर अध्ययन पूर्ण कर घर आते थे। अब किसी एक को चुनना, कौन चुने? माता-पिता निर्णय करते थे, स्वयंवर प्रथा थी क्षत्रियों में। आज तो माता-पिता रोते हैं रोते क्यों हैं? माता-पिता ने स्वयं शिक्षा नहीं दी बच्चों को,इसी का यह परिणाम है। विदेशी शिक्षा का यह परिणाम है।

ध्यान रखो। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की सीमा का उल्लंघन करने वाला हमेशा-हमेशा ताड़ित होगा। जिस समय जो कहा है, मर्यादा-सीमा में करो। भूख लगे तभी खाओ सुबह नाश्ता में गरिष्ठ दे दिया तो भोजन क्या करेगा?

आप दूसरों को शिक्षा देने की बात करते हो, पहले स्वयं शिक्षित हो जाओ। हमारी क्या-क्या कमजोरियाँ हैं क्या-क्या नहीं यह देखें सोचें। इसमें औपचारिकता नहीं करना मुझे औपचारिकता अच्छी नहीं लगती है।

पहले जमाने में छात्र-छात्राओं के विद्यालय अलग-अलग होते थे तथा अलग-अलग बैठते थे। यदि मिले हुए स्कूल होते थे तो भी अलग-अलग बैठते थे। लेकिन आज तो एक छात्र फिर छात्रा फिर छात्र ऐसे बैठते हैं ये कौन सा सुधार आया है शिक्षा के माध्यम से? ये शिक्षा पद्धति कहाँ तक बिगाड़ेगी पता नहीं।

गणित आदि के सूत्र जो हैं उसे विद्या कहा है और हित-अहित की बातें जो समझाई जाती हैं उसे शिक्षा कहा है।

पहले नीति वाक्य हितोपदेश के रूप में, शिक्षा के क्षेत्र में दी जाती थी।

हितोपदेश का अर्थ क्या? दूसरे का हित करने वाली शिक्षा जिस उपदेश में हो वह हितोपदेश है। अहित किससे होता है? हिंसा, झूठ, चोरी से ज्यादा परिग्रह लादने से होता है। प्राय: करके शिक्षा में हित की ही बातें कही जाती हैं।

भाषा वही महत्वपूर्ण मानी जाती है जिस भाषा में विशेष रूप से साहित्य का सृजन हो, अतुल विज्ञान, शिक्षा-पद्धति समृद्ध हो, देश की उन्नति, मानव समाज के विषय में विशेष आदर्श प्रस्तुत किये हों वह भाषा अपने आप ही समृद्ध, महत्वपूर्ण मानी जाती है।

मनुष्यों के लिए विद्यालय खोलते हैं लेकिन पशुओं के लिए विद्यालय नहीं खोलते पशु से मनुष्य शिक्षा ले लेते हैं।

पक्षियों के पास एक साल का इकट्ठा माल रहता है क्या? नहीं, फिर उसे पशु क्यों कहते हैं? यह दो पैर का कौन सा पशु है मानव के रूप में? वे पशु तो रात में खाते भी नहीं है, जब तक सूर्य नारायण उदित नहीं होता तब तक वे खाते भी नहीं और बोलते भी नहीं हैं सभ्य पशु हैं वे आज तो मनुष्य दिन में नहीं रात में खाते हैं।

आज तो मनुष्यों की यह नई पीढ़ी कहती है कि सामाजिक बन्धन को तोड़ो किन्तु यह बंधन नहीं व्यवस्था है।

जैसे गैया गाय को खूंटी से बाँध देते हैं ताकि इधर-उधर कहीं चली न जाये, भटक न जाये और वह भी इस बंधन को स्वीकार करती है। बिना आवाज किये ही सार में आकर खड़ी हो जायेगी। समय ही आवाज है ये शिक्षा उन्हें कहाँ से मिली? यह बड़ा विचित्र सा लगता है।

अमेरिका में हिन्दी भाषा के शिक्षण के लिए ४०० करोड़ की व्यवस्था की है। यहाँ न रोड़ न करोड़ की आवश्यकता है कन्या स्वयं सरस्वती होती है और जहाँ सरस्वती है वहाँ लक्ष्मी अपने आप आ जाती है।

दक्षिण में कभी भी लक्ष्मी पूजन नहीं होती है लेकिन बसंत पंचमी के दिन स्लेट बती लेकर सरस्वती का चित्र बनाकर लाई फूला चढ़ाते थे। भव-भावांतर तक अर्थात् जब तक मुक्ति नहीं मिलेगी तब तक यह संस्कार काम करेंगे।

आज निर्देशन ओर गाईडेन्स की पद्धति आ जाने से शिक्षा पद्धति में भी गड़बड़ी आ गई है।

सेल्फ स्टडी भी कब? जब पूर्ण अध्ययन हो जाये तब वह तभी शोध कर पायेगा। होमवर्क तो कर सकता है।

प्राचीन काल में गुरुकुलों में एक ही गुरुजी होते थे एक कक्षा के सभी विषय वे ही पढ़ाते थे। सभी विषयों को पढ़ाने में दक्ष होते थे वह, आजकल तो ट्यूशन से पढ़-पढ़कर आते हैं और पास हो जाते हैं। आज शिक्षण प्रणाली जो होना चाहिए वह नहीं है।

शिक्षा देने वाले में सहनशीलता होना चाहिए, मात्सर्य-ईर्ष्याभाव नहीं होना चाहिए किन्तु एक-दूसरे के पूरक होना चाहिए।

कुछ देश ऐसे हैं जहाँ प्रात: सम्बन्ध होते हैं शाम को छूट जाते हैं, शाम को होते हैं सुबह छूट जाते हैं इनमें कोई घनिष्ठता/मैत्री आदि नहीं रहती इसके बारे में भी अध्ययन कर लेना चाहिए। इसके बारे में भी शिक्षा दी जाती है ली जाती है। इधर-उधर की बातें शिक्षा में नहीं की जाती हैं। आज की शिक्षा में ये कोई बिंदु नहीं।

शिक्षा क्या है? यह पुस्तक मेरे पास आई थी उसमें देखा तो कोई महत्वपूर्ण बिन्दु नहीं थे। महत्वपूर्ण बिन्दु हैं-संस्कृति और सिद्धान्त।

संस्कार का कार्य प्रारम्भ दशा में बीज रूप होता है फिर फूलता-फलता बढ़ता है, सबको छाया देता है। ऐसे ही संस्कार के बीज शिक्षा के साथ फेंकते जाओ वह सहस्त्रगुणा फलित होता है।

आज अंग्रेजी में शिक्षा होने से घरों में बच्चे अंग्रेजी में बोलते हैं, हिन्दी भाषा का बोल चाल बंद होता जा रहा है ऐसे में आगे की पीढ़ी तो संस्कृति व भाषा ही भूल जायेगी।

वस्तु तत्व के पास जाने के लिए हमारे पास भाषा के अलावा कोई साधन नहीं।

पुराने दस्तावेज जो हैं वह उन्हीं के हस्ताक्षर रूप में रखो। हस्ताक्षर सुरक्षित नहीं रहेंगे तो संस्कृति सुरक्षित नहीं रहेगी।

हिन्दी में ही हस्ताक्षर होना चाहिए।

भूत-व्यन्तर भी उसी भाषा में बात करते हैं जिस भाषा से पूर्व में करते थे।

जितना आप अन्य भाषा का विस्तार करेंगे मूल हिन्दी भाषा समाप्त हो जायेगा। जैसे दूध में जितना पानी मिलाओगे उतना दूध का वास्तविक रूप दूर हो रहा है ऐसा समझ लो।

निश्चित दिशा, सही दिशा में कार्य करेंगे तभी उन्नति हो सकती है। नहीं तो नहीं।

भारतीय इतिहास पढ़कर वस्तु स्थिति समझिए तथा विदेशी संस्कृति का समर्थ न करिए।

आज शिक्षा के लिए विदेश भेज रहे हैं, पैसा खर्च कर रहे हैं ओर वह बेटा विदेश में ही नागरिकता धारण कर लेता है तथा माता-पिता से भी कहता है-आप भी यहीं पर आ जाओ ये क्या है?

साभार vidyaguru.com

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