विश्व के विभिन्न सम्प्रदायों पर जैन संस्कृति का प्रभाव

मयूर मल्लिनाथ वग्यानी
सांगली, महाराष्ट्र, + 91 9422707721

ऐतिहासिक अभिलेखों से पता चलता है कि यूनानी जैन संस्कृति से प्रभावित थे। इतिहासकारोंका कहना है की जब सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया तो मेगस्थनीज अपने अभिलेख में दर्ज किया है कि दिगंबर जैन मुनि तक्षशिला में निवास करते थे.

इजराइल (Israel) में एसेंस (Essence) नामक एक संप्रदाय था जो अहिंसा के सिद्धांत का पालन करता था। वे पार्श्वनाथ और महावीर की शिक्षाओं से प्रभावित रहे होंगे। इजराइल का एक फकीर समुदाय एस्सेन्स, जैन धर्म के सत्य और अहिंसा के मुख्य सिद्धांतों से काफी प्रभावित रहा होगा। अहिंसा ने इजरायली मूल के इस समुदाय को प्रभावित किया। इस समुदाय के फ़िलिस्तीन में बहुत से अनुयायी थे और वहां के लोगों के मन पर इसका अच्छा प्रभाव था। जॉन द बैपटिस्ट इस समुदाय के एक तपस्वी शिक्षक थे। ईसाई धर्म के संस्थापक ईसा मसीह, जॉन के अहिंसा के सिद्धांत से बहुत प्रभावित थे। 600 ईसा पूर्व तक, अहिंसा का यह पंथ आसपास के देशों सीरिया और फिलिस्तीन तक फैल गया था।

महावीर की शिक्षाओं ने पाइथागोरस को प्रभावित किया होगा,,जिनकी मृत्यु 532 ईसा पूर्व में हुई और उन्होंने अहिंसक जीवन शैली अपनाई। और उन्होंने जैन दर्शन का कठोरता से पालन किया। इस काल में भगवान महावीर का भारत में वास्तव्य था । संभवतः जैन संस्कृति ने दूर देशों के लोगों को प्रभावित किया होगा ।

इसका विस्तृत विवरण श्रीलंकाई भिक्खु बसनागोड़ा राहुला ने दिया है।
श्रीलंकाई भिक्खु बसनागोडा राहुला ने टेक्सास टेक यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट फैकल्टी को प्रस्तुत अपनी पीएचडी थीसिस में कहा है कि,


‘’At a time when Greeks showed scarce respect for animals, Pythagoras treated both animals and plants with utmost respect.”‘ He forbade the eating of beans, mallow, and other plants and opposed animal Sacrifices, and eating meat was strictly prohibited for his inner community.”‘ His respect for animal life was based on his belief that “animals were men’s brothers, having the same elements and the same constitution” (Gorman 126) including the soul that would which transmigrates to humans in another life. One would wonder how and why the Greek philosopher introduced all these revolutionary changes to the Greek way of thinking without being influenced by a society in which those practices existed. Again, Jainism may provide the answer. Mahavira taught that all Forms of life were worthy of respect since the soul, which transmigrates, is associated with every form of life. Jains abstained from eating meat and fish and refrained from harming plants and trees. Pythagoras, apparently, introduced the same practice into Greece with slight modifications’’, (THE UNTOLD STORY ABOUT GREEK RATIONAL THOUGHT: BUDDHIST AND OTHER INDIAN RATIONALIST INFLUENCES ON SOPHIST RHETORIC)’’, Submitted to the Graduate Faculty of Texas Tech University in Partial Fulfillment of the requirements for the Degree of ’’ DOCTOR OF PHILOSOPHY’’, by BASNAGODA RAHULA, B.A., M.A.Page 151)

अनुवाद
ऐसे समय में जब यूनानियों ने जानवरों के प्रति कम सम्मान दिखाया, पाइथागोरस ने जानवरों और पौधों दोनों के साथ अत्यंत सम्मान के साथ व्यवहार किया।” उनके संघ में मांस और कंदमूल खाने, जानवरों को मारने या बलि देने पर प्रतिबंध था, और उनके आंतरिक समुदाय के लिए मांस खाना सख्त वर्जित था।वे जानवरों का सम्मान करते थे, उनका मानना था कि जानवर और मनुष्य भाई-भाई हैं और उनमें समान तत्व हैं। यह किसी के लिए भी आश्चर्य की बात होगी कि इन यूनानी दार्शनिकों ने यूनानी समाज में ऐसे क्रांतिकारी परिवर्तन लाये, और ये किसी बाहरी समाज में ये प्रथाएँ आरंभ से ही विद्यमान रही होंगी। और इसका उत्तर जैन दर्शन में पाया जा सकता है. जैन किसी भी मांस खाने से परहेज करते हैं और किसी भी जानवर या पौधों को नुकसान पहुंचाना प्रतिबंधित है। पाइथागोरस ने इन जैन सिद्धांतों को संशोधित किया और उन्हें यूनानी समुदाय को दिया।


(‘’He frowned on luxury especially and would not let his followers wear anything but simple white linen clothing”. The members of his inner circle were expected not to own any personal property but to share everything. The new members entering the inner circle were subject to more strict asceticism such as Pythagoras’ neglect of them for three years and the insistence on their silence for five more years to test whether they were sufficiently prepared to despise worldly life.”‘ All these practices suggest that Pythagoras imposed strong asceticism against worldly life. His discouragement of worldly pleasure and refusal of personal belongings for the novices and the members of the inner circle are particularly sticking. It was a strict rule for Jain monks and nuns to shun worldly success, to refuse worldly\ Pleasure, and to live in a community equally sharing their belongings and not possessing anything personally. These rules came into effect as Mahavira preached that enjoyment of sense pleasure and possession of material objects were motivated by greed, a terrible hindrance to enlightenment. To release the soul from the bondage of rebirth, Mahavira recommended strict asceticism. This doctrine, which was original and unique in Jain Teaching, could have reached Pythagoras from nowhere else other than from a Jain community’’ (THE UNTOLD STORY ABOUT GREEK RATIONAL THOUGHT: BUDDHIST AND OTHER INDIAN RATIONALIST INFLUENCES ON SOPHIST RHETORIC)’’, Submitted to the Graduate Faculty of Texas Tech University in Partial Fulfillment of the Requirements for the Degree of ’’ DOCTOR OF PHILOSOPHY, Page 151-152)

अनुवाद
वह विशेष रूप से विलासिता से घृणा करते थे और अपने अनुयायियों को साधारण सफेद लिनेन के कपड़ों के अलावा कुछ भी पहनने की अनुमति नहीं देते थे. उनके आंतरिक दायरे के सदस्यों से अपेक्षा की गई थी कि वे किसी निजी संपत्ति के मालिक न हों बल्कि सब कुछ साझा करें।
उन्होंने अपनी संघ के सदस्यों के लिए सख्त नियम बनाए थे और सभी को उनका पालन करना पड़ता था, जिसके लिए उन्होंने पहले 3 वर्षों तक नए सदस्यों को नजरअंदाज करते थे , उनका परीक्षण करके और 5 वर्षों के बाद यदि वे इन सभी नियमों का पालन निष्ठा से करने में सफल रहे, तो उन्हें अंदर रहने की अनुमति दी गई जाती थी । संघ के यह कठोर व्यवस्था सिद्ध करती है कि उन्होंने अपने संघ में भौतिक सुखों से अधिक कठोर तपस्या पर बल दिया।
उनके संघ में सख्त नियम थे जैसे सभी भौतिक सुखों का त्याग करना, सख्त तपस्वी जीवन जीना और कोई निजी संपत्ति न रखना। जैन संघ के सभी साधु-साध्वी कठोर नियमों का पालन करते रहे हैं. महावीर कहते हैं कि जिसके पास जितनी सांसारिक संपत्ति है, उसे हासिल करने और बनाए रखने के लिए वह पाप कर सकता है। और यह उसे लंबे समय तक दुखी रख सकता है. महावीर ने कहा है कि कठोर तपस्या ही आध्यात्मिक मुक्ति का मार्ग है। ये सभी अद्वितीय सिद्धांत जैन मूल के हैं और पाइथागोरस तक किसी और से नहीं बल्कि जैन समुदाय से ही पहुंचे होंगे।


‘’When Pythagoras probably began to be acquainted with Indian thoughts, Brahmin concepts of creation and the universal! Being had lost their early prestige having been incessantly attacked by the ascending Jain power. Jain thoughts had a long history before the sixth century B.C.E., but Jainism established itself as an enormous power against the Brahmin system during the early sixth century as Mahavira, born in 599 B.C.E., campaigned Successfully until his death in 527 as the Jain tradition admits. He rejected creation and creator, but retained the concepts of soul, reincarnation, and self-purification for the release of soul from rebirth. Notably, he also organized the first social system, which included women as well, to counter the Brahmin authority. Rulers and the common public promoting his ascendancy, Mahavira enjoyed enormous popularity and Gained much power, and his thoughts received wide acceptance during the second and third quarters of the sixth century B.C.E’’). ( UNTOLD STORY ABOUT GREEK RATIONAL THOUGHT: BUDDHIST AND OTHER INDIAN RATIONALIST INFLUENCES ON SOPHIST RHETORIC)’’, Submitted to the Graduate Faculty of Texas Tech University in Partial Fulfillment of the Requirements for the Degree of ’’ DOCTOR OF PHILOSOPHY, Page -149)

अनुवाद
जब तक पाइथागोरस संभवतः भारतीय चिंतन से परिचित हो गए थे, तब तक सृष्टि और ब्रह्मांड की ब्राह्मणवादी अवधारणा के खिलाफ जैनियों के जोरदार और निरंतर विरोध के कारण ब्राह्मणों ने अपनी प्रारंभिक प्रतिष्ठा खो दी थी. जैन दर्शन का एक लंबा इतिहास ईसा पूर्व छठी शताब्दी से पहले का है, लेकिन जैन धर्म ने छठी शताब्दी की शुरुआत में महावीर के नेतृत्व में ब्राह्मण व्यवस्था के खिलाफ एक जबरदस्त ताकत विकसित की, जिनका जन्म 599 ईसा पूर्व में हुआ था और उन्होंने अपनी मृत्यु (527 ईसा पूर्व) तक सफलतापूर्वक जैन दर्शन का प्रचार किया। उन्होंने पृथ्वी और ब्रह्मांड के निर्माण की अवधारणा को खारिज कर दिया लेकिन पुनर्जन्म से आत्मा की मुक्ति के लिए आत्मा, पुनर्जन्म और आत्म-शुद्धि की अवधारणाओं को बरकरार रखा. विशेष रूप से, उन्होंने ब्राह्मण सत्ता का मुकाबला करने के लिए पहली सामाजिक व्यवस्था भी संगठित की, जिसमें महिलाएं भी शामिल थीं। शासकों और आम जनता ने उनके प्रभुत्व को बढ़ावा दिया, महावीर ने भारी लोकप्रियता हासिल की और बहुत शक्ति प्राप्त की, और उनके विचारों को छठी शताब्दी ईसा पूर्व की दूसरी और तीसरी तिमाही के दौरान व्यापक स्वीकृति मिली”)


Pythagoras, in the meantime, was, reportedly, taken to Babylon in 525 B.C.E.,”‘ Two years after Mahavira died, as a captive of the Persian army that invaded Egypt. He stayed in Babylon for 12 years! “Whether he went to India or not during his long stay in Babylon is a different question, but it could have been impossible for the curious philosopher, one who Traveled to the end of the earth from the desire for learning”*’ not to have heard anything about Mahavira’s teaching in Babylon and Persia.
(UNTOLD STORY ABOUT GREEK RATIONAL THOUGHT: BUDDHIST AND OTHER INDIAN RATIONALIST INFLUENCES ON SOPHIST RHETORIC)’’, Submitted to the Graduate Faculty of Texas Tech University in Partial Fulfilment of the Requirements for the Degree of ’’ DOCTOR OF PHILOSOPHY, Page 149)

अनुवाद

इस बीच, पाइथागोरस को, कथित तौर पर, 525 ईसा पूर्व में महावीरजी के मृत्यु के दो साल बाद, मिस्र पर आक्रमण करने वाली पर्सियन सेना ने बंदी के रूप में लाया गया था. वह 12 वर्ष तक बेबीलोन में रहा। बेबीलोन में अपने लंबे प्रवास के दौरान वह भारत आए या नहीं, यह एक अलग सवाल है, लेकिन यह असंभव लगता है कि एक उत्सुक दार्शनिक जो सीखने के लिए पृथ्वी के छोर तक यात्रा करनेवाला , उसने बेबीलोन और पर्शिया में महावीर की शिक्षाओं के बारे में कुछ भी नहीं सुना होगा।
.बेबीलोन वर्तमान इराक है और पर्शिया मतलब ईरान है। पर्शिया के राजा ने पाइथागोरस को वर्तमान मिस्र से गिरफ्तार किया और उसे यहां बेबीलोन ले आए। वहां उन्हें जैन दर्शन के बारे में जानकारी मिली.
इससे यह सिद्ध होता है कि महावीर ने पाइथागोरस जैसे महान दार्शनिकों को प्रभावित किया था और जैन धर्म यूनानी तथा मध्य पूर्वी देशों तक भी पहुँचा था.

जैन धर्म का मौलिक इतिहास” मध्ये आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज लिहतात,
”सिकंदर महान और चिनी यात्री फाहियान, ह्यूएन त्सांग के समय मे उत्तर पश्चिम सीमाप्रांत एवं अफगाणिस्तान मे विशाल संख्या मे जैन मुनियों के पाये जाणे का उल्लेख मिलता है, वह तभी संभव हो सकता है, जबकी वह क्षेत्र भगवान पार्श्वनाथ का विहारस्थल माना जाय.
सात सौ ई में चिनी यात्री ह्यूएन त्सांगने तथा उसके भी पूर्व सिकंदर ने मध्य एशिया के ”कियारीश” नगर मे बहुसंख्य निग्रंथ संतोंको देखा था. अतः यह अनुमान से सिद्ध होता है कि मध्य एशिया के समरकंद, बल्ल आदि नगरो मे जैन धर्म उस समय प्रचलीत था”. (जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग, तीर्थकर खंड, लेखक आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज, पुष्ठ – ४६६).

इससे सिद्ध होता है कि श्रमण संस्कृति मध्य एशिया, अफगानिस्तान, तुर्की, रूस तक फैली हुई थी. महावीर के समय में विश्व के विभिन्न देशों में महान समाज सुधारक हुए, जैसे चीन में लाओजी और कन्फ्यूशियस, युन्नान में पाइथागोरस, अफलातुन और सुखारा, ईरान में ज़ोरेस्टर, फिलिस्तीन में जेरेमिया और ईजेकील और भारत में बुद्ध। उनपर महावीर और जैन धर्म का कुछ न कुछ प्रभाव रहा होगा।