जैन प्रतिमाओ और शिवलिंग
पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में जहां कही भी खुदाई में पुरातत्ववेत्ताओं को हजारों साल प्राचीन प्रतिमाएं मिलती है तो उसमें ज्यादातर जैन तीर्थंकरो की प्रतिमाएं और शिवलिंग ही मिलते हैं। जैन प्रतिमाओ और शिवलिंग के अवशेषों के मिलने के पीछे एक अद्भुत रहस्य छिपा हैं। जैनधर्म अनुसार प्रत्येक आत्मा अपने पुरुषार्थ और साधना से आठो कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त करती हैं। जैनधर्म में मोक्ष प्राप्त करने को शिवपद प्राप्त करना भी कहा जाता है। जैन शास्त्रों की तरह ही वेदों में भी शिव का अर्थ किसी विशेष देव से नहीं बल्कि कल्याण और मोक्ष के अर्थ के सूचन से है। जैन धर्म अनुसार 24 तीर्थंकर स्वयं जागृत होकर सभी कर्मों और लोभ,क्रोध,मान,माया वगैरह सभी दोषों से स्वयं की आत्मा को शुद्ध कर मोक्ष प्राप्त करते हैं , साथ ही लाखों जीवों को भी अपने उपदेशों से जागृत कर मोक्ष प्राप्ति में सहायक बनते हैं इसलिए वे तीर्थंकर कहें जाते हैं।
तीर्थंकरो की प्रतिमाएं साकार रुप में होती हैं लेकिन 24 तीर्थंकरो के अलावा अन्य असंख्य आत्माएं जो आत्मशुद्धि कर भवचक्र से मुक्ति को प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करती हैं वे सभी निराकार परमात्मा के रुप में पूजी जाती हैं उनका यह निराकार रुप ही शिव और शिवलिंग कहा जाता है। जैन ग्रंथों में हजारों जगह शिव शब्द मोक्ष प्राप्त असंख्य आत्माओ के लिए मिलता है। जैन धर्म में 24 तीर्थंकर में से 22 वे तीर्थंकर अरिष्टनेमि(नेमिनाथजी)की दिक्षा,कैवलप्राप्ति और मोक्ष प्राप्ति गुज़रात के गिरनार पर्वत पर हुई इसीलिए यह भारतीय संस्कृति में पवित्र तीर्थ माना गया है। वेदों में भी स्वस्ति मंत्र में तीर्थंकर अरिष्टनेमि की वंदना की गई है।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः॥ स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।
लेकिन आज मूल प्राचीन वेदों को भूलाकर उनकी जगह 11 वी सदी के बाद भक्ति आंदोलन के समय नवीन रचे गए पौराणिक कथाओं को अधिक महत्व दिया जाने लगा हैं। अरिष्टनेमि के प्रमुख शिष्यों में वरदत्त शिष्य थे जो तीर्थंकर अरिष्टनेमि और उनके हजारों शिष्य परिवार के साथ गिरनार पर ही साधना करते थे। लेकिन जैन धर्म का मानना है कि पौराणिक कथाओं में इन्हीं वरदत्त गणधर को दत्तात्रेय के रुप में पूजा जाने लगा हैं। वरदत्त गणधर भी साधना और आत्मशुद्धि द्वारा कैवल्य और मोक्ष को प्राप्त होने से सिद्ध परमात्मा (शिव) माने जाते हैं। तीर्थंकर नेमीनाथजी के जितने भी प्राचीन मंदिर है वहां निकट ही दत्तात्रेय और उनकी शासनदेवी मां अम्बा के मंदिर मिलते हैं।
एक हजार वर्ष पहले गीरनार तीर्थ पर प्राचीन मूल जैन मंदिर का उद्धार और नये जैन मंदिरो का निर्माण कार्य उस समय के लाखों-करोड़ों रुपयों का खर्च कर जैन मंत्रियों वस्तुपाल-तेजपाल और पेथड़शाह मंत्री द्वारा किया गया है। पेथड़शाह ने ही नेमिनाथ भगवान की यक्षिणी देवी अंबे मां का मंदिर गिरनार तीर्थ पर बनवाया था।
गीरनार तीर्थ की पांचमी टुंक(चोटी)पर तीर्थंकर अरिष्टनेमि भगवान के चरण पादुका भी जैनों ने ही बनवाई थी। 1874 के पुरातात्विक विभाग की रिपोर्ट अनुसार भी ये तीर्थंकर नेमीनाथजी के ही चरण चिन्ह हैं,लेकिन कुछ ही सालों पहले अब वहा चरण चिन्ह के पास में अवैध रूप से दत्तात्रेय की नवीन मार्बल की मूर्ति की प्रतिष्ठा की गई है। जैनों ने जब गुजरात हाईकोर्ट में याचिका दायर की,तब जस्टिस कुरेशी द्वारा दिसम्बर 2004 तक वहां अन्य समाज को उनके द्वारा किए गए बदलाव और गुरु दत्तात्रेय की अवैध रूप से रखी गई मूर्ति को हटाने का भी आदेश दिया , लेकिन सुनवाई की अगली तारीख तक हाइकोर्ट के आदेश का उल्लघंन कर वहां से मूर्ति भी नहीं हटाई गई और जस्टिस का भी ट्रांसफर कर दिया गया।
गीरनार पर गोमुख गंगा पर 24 तीर्थंकरो के चरण चिन्ह तीर्थंकरों के नाम सहित बने हुए हैं, जहां अन्य समाज ने अवैध अतिक्रमण कर दिया है। गुजरात नरेश सिद्धराज जयसिंह ने अपने पिता कर्णदेव(जिनके नाम पर अहमदाबाद का प्राचीन नाम कर्णावती था)उनके नाम पर यहां जैन मंदिर कर्णप्रासाद अपने जैन मंत्री सज्जनमंत्री के हाथों बनवाया था।
और गीरनार तीर्थ की चोटी तक पहुंचने की 9000 सीढ़ियों को बनवाने का अतिकठिन कार्य भी जैन मंत्री बाहड़शाह ने ही किया था।
अंबाजी तीर्थ से भी सिर्फ 1 किमी दूर कुंभारियाजी में जैन मंत्री विमल शाह ने तीर्थंकर नेमीनाथजी का विशाल भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था।
आबू पर्वत पर भी वस्तुपाल-तेजपाल जैन मंत्रियों ने देलवाड़ा का भव्य मंदिर बनवाया था,जो अपनी नक्काशी के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं। उसी देलवाड़ा के प्रांगण में विमल शाह ने तीर्थंकर नेमीनाथजी का भव्य मंदिर बनवाया जिसे हम विमलवसही कहते हैं।
तीर्थंकर नेमीनाथजी के शिष्य गणधर वरदत्त होने से जहां-जहां जहां तीर्थंकर नेमीनाथजी के भव्य मंदिर बने, वहां उनके शिष्य और यक्षिणी अंबिका देवी(अंबे मां) के भी मंदिर जैनो द्वारा 11वी,12वी और 13 वी सदी में बनवाए गए थे। लेकिन कुछ सदियों में ही जैनो के देव-देवी माउंट आबू में वे दत्तात्रेय (गुरु शिखर), गीरनार मे अंबे मां व दत्तात्रेय और कुंभारियाजी में भी अंबाजी यात्राधाम के रूप में हिन्दू तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हो गये।
इतना ही नहीं गुजरात के पावागढ़ में भी महाकाली का शक्तिपीठ कुछ सदियों पूर्व ही प्रसिद्ध यात्राधाम हुआ हैं, जहां कुछ ही सालों पहले गुजरात सरकार ने नया मंदिर का निर्माण किया है लेकिन उसी पावागढ़ पर्वत पर 4000 वर्ष अतिप्राचीन भव्य विशाल ऐसे 2 जैन मंदिर आपको देखने को मिलेंगे ,जो पावागढ़ पर्वत पर जैन धर्म की प्राचीन भव्यता को प्रमाणित करते हैं। जैन धर्म में महाकाली देवी भी पांचवे तीर्थंकर सुमतिनाथजी की यक्षिणी देवी ही हैं।
प्राचीन सनातन भारतीय परंपरा में पूरे भारत में ही जैन धर्म बहुत ही विशाल और भव्य था। जिसकारण से खेतों की खुदाई के दौरान वहां से हजारों वर्ष प्राचीन जैन तीर्थंकरों की दुर्लभ हजारों प्रतिमाएं भूगर्भ से समय-समय पर मिलती रहती हैं जो इतिहास के गर्भ में छिपे जैन धर्म की प्राचीन भव्यता को प्रमाणित कर रही हैं ।
-पिंकल शाह
अहमदाबाद।
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